Channel Mountain

Channel Mountain Channel Mountain (CM) is a social media enterprise. The prime motto of CM is to preserve and conserve mountain's human, nature and animal. S. Dang ‘Bittu’.
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The idea of Channel Mountain had been conceived in 2000 by a seasoned writer, journalist, anthropologist, social worker and documentary film-maker Jayprakash Panwar ‘JP’ and conceptually supported by an eminent cinematographer Late Shri M. Later on, with the generous support of friends, CM has shaped as a media organization and was established on 13 November 2003 as a registered entity. It is the

first production firm/company in Uttarakhand, which launched a New Media concept to provide a complete package of digital communication services, training and consultancy in the state. Since its setting up, CM has provided professional services for the production of films, documentaries, news, short films, advertisements, promos, television programs, music albums, audios, radio programs, visual documentation and publications. On the other hand, CM also has imparted media training, internship, workshops, seminars and mass communication events in the state. The prime motto of CM is to restore, preserve and document land, people, ecology and environment, history and culture in the digital age. Since its establishment, CM has been engaged in audio-visual and print production for public entertainment, education and mass awareness and provided its services to a number of government, non-government organizations and institutions, private and individuals at the state and national level.

“पितृकुढा” जैसी स्थानीय कथानक फिल्मों का नया दौर शुरू जयप्रकाश पंवार ‘जेपी’पिछले साल से उत्तराखंडी फिल्मों का एक नया दौर...
20/02/2024

“पितृकुढा” जैसी स्थानीय कथानक फिल्मों का नया दौर शुरू
जयप्रकाश पंवार ‘जेपी’

पिछले साल से उत्तराखंडी फिल्मों का एक नया दौर शुरू हुआ है, खासकर गढ़वाली फ़िल्में जो कभी सीडी, डीवीडी और लाइव स्ट्रीमिंग चैनल, ओटीटी पर थी अब मल्टीप्लेक्स और सिनेमा घरों पर भी दिखाई देने लगी है. इन फिल्मों को दर्शक अपना पैसा खर्च कर देख रहे है और हाउसफुल थिएटर से अब फिल्म निर्माताओं का आत्मविश्वास बढ़ने लगा है. जग्वाल, घर जवांई, बेटी ब्वारी, बँटवारु, मेरी गंगा होली त मै मु आली, धारी देवी से लेकर, सुबेरो घाम, हेलो उत्तराखंड, मेरु गौ, पोथली और आज की नयी चर्चित फ़िल्में रिखुली और पित्रकुढा तक एक लम्बा सफ़र तय किया है. निर्माता निर्देशक देबू रावत जय माँ धारी देवी फिल्म को यूनाइटेड किंगडम के बर्मिंघम में शो कर एक कीर्तिमान स्थापित कर चुके है. उत्तराखंड की पृष्ठभूमि पर बनी लघु फिल्म पाताल ती व सृस्ठी लखेड़ा की एक था गांव रास्ट्रीय व अंतररास्ट्रीय जगत मं सुर्खियाँ बटोर चुकी है.

उत्तराखंड की फिल्मों पर कभी नाक भौं सिकोड़ने वाले भी आज कॉफ़ी और पॉपकॉर्न का आनंद लेते फ़िल्में देख रहे है. उत्तराखंडी फिल्मों का यह नया दौर एक नयी आशा की किरण दिखा रहा है. इसका एक मात्र कारण यह है कि फिल्म निर्माता स्थानीय कहानियों व कंटेंट पर फिल्म बनाने लगे है, फिल्म निर्माताओं ने मुंबईया लटके झटकों को किनारे कर शुद्ध आंचलिक कहानियों पर फिल्म बनाने से दर्शक अब सीधे अपनी मिटटी व जन संस्कृति से जोड़ पा रहे है. आजकल देहरादून के सिल्वर सिटी मौल में आंचलिक फिल्मों के चर्चित निर्माता निर्देशक व अभिनेता प्रदीप भंडारी की नयी फिल्म पितृकुढा दिखाई जा रही है. मसूरी में तीन हफ्ते सफलतापूर्वक चलने के बाद अब फिल्म ने देहरादून का रूख किया है.
फिल्म पितृकुढा अभी तक लगभग हाउसफुल चल रही है. इस फिल्म की सबसे बड़ी विशेषता इसके नाम में छुपी है जो दर्शकों को सीधे उनकी जड़ों से जोड़ती यही इस फिल्म की सफलता का बड़ा राज है. उत्तराखंड के जनजीवन व परंपरा का यह एक अभिन्न अंग है, लेकिन आज की रफ़्तार भरी जिंदगी व देश दुनिया में बसे लाखों प्रवासी व उनकी नयी पीढ़ी पितरों के संस्कारों को भूल सी जा रही है. मान्यताओं के अनुसार जब पितरों का लिंगवास नहीं किया जाता, तो परिवार पर पितृदोष लग जाता है व परिवार पर अनेकों दिक्कतें आ जाती है. रघुनाथ सिंह राणा (प्रदीप भंडारी) गांव के एक प्रतिष्ठित व्यक्ति है.

उनका एक मात्र पुत्र दीवान सिंह राणा गांव से रोजगार की तलाश में दिल्ली आ जाते है व अपनी मेहनत से एक बड़े रेस्टोरेंट के मालिक बन जाते है. गांव में माता – पिता अकेले रहते है, जिनकी देखभाल व घर के कामों में बचपन से पाले नेपाली युवक रामू बहादुर (राजेश जोशी) एक पारिवारिक सदश्यकी तरह करता है. दीवान सिंह व उनकी पत्नी अपने व्यवसाय व ऐशो आराम में इतने मशगूल है की वो अपने माता – पिता को ज्यादा तवज्जो नहीं देते, खासकर दीवान सिंह की पत्नी. एक बार दीवान सिंह की माँ बहुत बीमार हो जाती है व अपने पति से बच्चों को घर बुलाकर अपनी अंतिम इच्छा पूरी करना चाहती है. दीवान सिंह के पिता मोबाइल कॉल करते है घंटी बजती है लेकिन दीवान सिंह अपने हिसाब – किताब व कंप्यूटर पर व्यस्त रहता है. दो – तीन बार घंटी फिर बजती है अब यह कॉल दीवान सिंह की पत्नी उठाती है. कुछ टाल मटोल की बात कर तवज्जो नहीं देती.
इसी बीच दीवान सिंह की माँ गुजर जाती है. दीवान सिंह के पिता रघुनाथ सिंह खुद उनका दाह संस्कार कर देता है. जीवन चलता रहता है, अब भू माफिया भी गांवों तक पहुचने लगे, रघुनाथ सिंह की भूमि पर माफियाओं की नजर पड़ जाती है, वो रघुनाथ सिंह को रुपयों का लालच देते है और अंत मैं डराने धमकाने का काम करते है. रघुनाथ सिंह अकेले उनसे लड़ता है. आखिरकार भूमाफियाओं को गांव से भागना पड़ जाता है. पत्नी की मिर्त्यु के बाद अब रघुनाथ भी बीमार रहने लगता है. अपने बेटे से आस छोड़ चुका रघुनाथ सिंह, एक दिन अपनी वसीयत अपने नेपाली नौकर रामू बहादुर के नाम कर अपना शरीर त्याग देते है. उनका अंतिम संस्कार खुद नेपाली रामू बहादुर करता है व अब भरा पूरा घर का मालिक बन जाता है.

गांव में यह चर्चा हो जाती है कि रघुनाथ सिंह को रामू बहादुर ने मार दिया है व लांस तक गायब कर दी है. उधर दीवान सिंह के कारोबार में नुकशान होना शुरु हो जाता है. दीवान सिंह की पत्नी अजीबो गरीब हरकतें करने लगती हैं उस पर दौरें पड़ने लगते है. कई डाक्टरों, ओझाओं की सरण के बाद भी समस्या का हल नहीं निकालता. आखिरकार पहाड़ के एक बाक्या व पंडित से पितृ दोष का पता चलता है व घर के कोने में धुल में सिमटी देवी माँ भी नाराज है. दीवान सिंह अपनी उलझनों में व्यस्त है. दीवान सिंह का पुत्र जतिन (शुभ चन्द्र बधानी) देवी माँ की मूर्ति खोजने व उसके सुधिकरण के लिए गांव पहुँचता है, जतिन कभी गांव आया ही नहीं था. किसी तरह वह एक होमस्टे में रहकर अपने दादा जी के घर पहुँचता है जहाँ उसका सामना रामू बहादुर से होता है. बात पटवारी प्रियंका नेगी (स्वेता भंडारी) तक पहुँचती है.

कुल मिलाकर पितृकुढा का असली लब्बोलुआब अब यहीं से शुरू होता है, इसके लिए फिल्म पितृकुढा देखनी जरुरी है. पहाड़ों से पलायन, खाली होते गांव, भूमाफियों की लूटपाट, शख्त भू क़ानून, अपनी जड़ों के प्रति बेरूखी, बोली भाषा के सवालों को उठा रही है फिल्म पितृकुढा. फिल्म के सभी कलाकारों ने उम्दा अभिनय किया है, कलाकारों, तकनिसीयनों की मेहनत फिल्म में साफ़ नजर आती है. खासकर इस फिल्म में महिला कलाकारों ने पुरुष कलाकारों को जबरदस्त टक्कर दी है शुषमा ब्यास, लक्ष्मी, शिवानी भंडारी, अनामिका राज ने फिल्म में विशेष छाप छोड़ी है. शिवानी भंडारी व अनामिका राज ने जिस आत्मविश्वास से अभिनय किया है उनसे आगे की उम्मीद बढ़ जाती है. जतिन के युवा चरित्र के रूप में शुभ चन्द्र बधानी व उनका हीरो लुक आने वाले कल की एक नयी संभावना है.

मंझे कलाकारों में सबसे चुनौतीपूर्ण भूमिका में पदम् गुसाईं का अभिनय अलग दिखता है. रामू बहादुर की भूमिका में राजेश जोशी सदा की तरह और निखरे है. उनकी एररलेस अभिनय ने उनको एक बड़ा कलाकार साबित कर दिया है. भूमाफिया के रोल में जहाँ ब्रजेश भट्ट जमते है. वहीँ दीवान सिंह के दोस्त के रूप में जयाडा जी का कैमियो भूमिका जंचती है और दीपक रावत का पंडित की भूमिका बहुत सहज लगती है, ये दीपक के अभिनय की विशेषता रही है. कहानी, पटकथा,निर्देशन व अभिनय के सफल संयोजन में हर विधा के साथ पूरी फिल्म को अपने कन्धों पर लेकर सिनेमा घर तक पहुँचाने का जो बीड़ा प्रदीप भंडारी ने उठाया है, वह एक समर्पित फिल्मकार ही कर सकता है. पितृकुढा फिल्म का अंत स्वर्गलोक पहुंचे माता पिता के दो – चार डायलौग से ही समाप्त हो सकता था. यहाँ फिल्म थोड़ी लम्बी खिच गयी. ढाई घंटे की इस फिल्म के अंतिम 5 मिनट यदि टाइट कर दिए जांए तो पूरी फिल्म कॉम्पैक्ट बन जाएगी.

संगीतकारों में सदाबहार काम नाम के अनुरूप संजय कुमोला, अमित वी. कपूर ने दिया है. उभरते संगीतकार सुमित गुसाईं को एक अच्छा ब्रेक मिला है. आशीष पन्त और टीम ने बीजीएम्, साउंड ट्रैक व फोलियो साउंड का बेहतर काम किया है. गीतों को फिल्म के अनुसार स्वरों से संजोया है जीतेंद्र पंवार, संजय कुमोला, प्रीती काला, प्रेरणा भंडारी नेगी, पदम् गुसाईं और राज लक्ष्मी ने. मेकअप संदीप राजपूत का है. डायरेक्टर ऑफ फोटोग्राफी व फिल्म का संपादन एक हुनरमंद व अनुभवी नाम नागेन्द्र प्रसाद का है. पितृकुढा फिल्म को इस मुकाम तक पहुंचाने की परदे के पीछे की सबसे बड़ी भूमिका अगर किसी की हो सकती है तो वह नाम है फिल्म के सह निर्देशक विजय भारती. पितृ कुढा फिल्म की सारी यूनिट को बहुत बहुत बधाई और सुभकामनाएँ.

जयप्रकाश पंवार ‘जेपी’
(फिल्मकार व समीक्षक)

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